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कोई भी सरकारी अथवा गैर सरकारी विभाग गिरीश रामचंद्र देशपांडे के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर सुचना के अधिकार के तहत जानकारी देने से बचनें की कोशिश करे ?

RTI ACT-2005 में यह तो प्रथम अपील एवं द्वितीय अपील में नीचे पोस्ट आवेदन पत्र के कुछ लाईनों का उल्लेख जरूर करें.।

RTI क़ानून कहता है कि सेक्शन 7(1) में बताई परिस्थितियों को छोड़कर, सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार हासिल है। सेक्शन 7(1) साफ़ कहता है कि केवल सेक्शन 8 और सेक्शन 9 में बताई गई परिस्थितियों में ही सूचना या जानकारी उपलब्ध कराए जाने से इंकार किया जा सकता है। क़ानून का सेक्शन 22 कहता है कि कोई भी पुराने क़ानून या नियम, सूचना उपलब्ध कराने की मनाही का आधार नहीं हो सकते।

गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को अब पूरे देश में क़ानून की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन वह फ़ैसला क़ानून नहीं बनाता। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले इस्तेमाल गलत तरीके से नागरिकों के बुनियादी अधिकार को सीमित करने के लिए किया जा रहा है।

मैं इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए गए हैं, उन्हें अनुच्छेद 19(2) में वर्णित किया गया है। यह प्रतिबंध “भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने, राज्य की सुरक्षा, विदेशी देशों से मित्रवत् संबंधों को खराब करने, क़ानून व्यवस्था बिगाड़ने, कोर्ट की अवमानना, मानहानि या अपराध को उकसाने की स्थिति” में लगाए जा सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के दो फ़ैसलों को याद किया जाना जरूरी है। पी रामचंद्र राव बनाम् कर्नाटक राज्य, अपील नंबर (crl.) 535 में पांच जजों वाली बेंच ने कहा था:

“कोर्ट क़ानून की घोषणा कर सकते हैं, वे क़ानून की व्याख्या कर सकते हैं, वह इसकी खामियों को भर सकते हैं, लेकिन वे विधायी कार्यों में अतिक्रमण नहीं कर सकते, यह काम विधायिका के लिए है।” राजीव दलाल (Dr) बनाम् चौधरी देवीलाल यूनिवर्सिटी, सिरसा एवम् अन्य, 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फ़ैसले की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा, “कोर्ट का एक फ़ैसला अगर तर्कों पर आधारित कुछ नियम बनाता है, तो यह आगे के लिए फ़ैसलों का प्रचलन तय करता है। केवल साधारण निर्देशों और परीक्षणों के आधार पर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता, जब तक किसी नियम के बारे में तर्क पेश नहीं किए जाएंगे, उसे आगे के फ़ैसलों के लिए प्रचलन या पूर्ववर्ती नियम नहीं माना जा सकता।”

गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पूरे देश में क़ानून की तरह उपयोग किया जा रहा है। मैं कहूंगा कि इसका प्रभाव यह हुआ है कि बिना क्षेत्राधिकार के RTI क़ानून के सेक्शन 8(1)(j) में बदलाव कर दिया गया। मैं यहां यह बताने की कोशिश करूंगा कि यह फ़ैसला क़ानून नहीं बनाता और उसका इस्तेमाल गलत तरीके से नागरिकों के बुनियादी अधिकार को सीमित करने के लिए किया जा रहा है।

●गिरीश रामचंद्र देशपांडे मामले में दिए गए फ़ैसले को क़ानून की दुनिया में पूर्व प्रचलन की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई भी विस्तृत तार्किकता नहीं दी गई थी, ना ही कोई क़ानूनी सिद्धांत बनाया गया था। फ़ैसले में जब यह कहा गया कि कुछ मामले नियोक्ता और कर्मचारी के बीच के होते हैं, तब यह बात भुला दी गई कि किसी सरकारी नौकर के नियोक्ता ‘भारत के लोग’ होते हैं।
●RTI क़ानून के एक अहम प्रावधान को न्यायिक फ़ैसले द्वारा बदल दिया गया, जबकि यह फ़ैसला त्रुटिपूर्ण दिखाई पड़ता है। यह फ़ैसला संविधान के अनुच्छेद 19 (2) का भी उल्लंघन करता है। बिना किसी बेहतर तर्कशक्ति के नागरिकों के एक ऐसे हथियार को कमजोर कर दिया गया, जो सार्वजनिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार और मनमानियों को सामने लाता था।

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