बहुत ही सार्थक और व्यवहारिक तरीके से.
पहले छः महीने के लिए amnesty हो. सभी कर्मचारियों को एक स्पष्ट सन्देश हो कि इस काल में वे अपने तन, मन और धन को आपस में व्यवस्थित कर लें. तन की, परिवार की आवश्यकताओं को उपलब्ध धन (वेतन) में कैसे चलाना है, इसकी practice कर लें. हमारे हिसाब से कोई भी व्यक्ति मां के पेट से खराब पैदा नहीं होता है. परिस्थितियां और व्यवस्थाएं खराब बना देती हैं. समाज में पैसे का अधिक मूल्य बेईमान बना देता है. समाज कहता है- कुछ भी कर, पैसा बना और पैसा दिखा, इज्जत बढ़ेगी ! इसीलिए आज हमारे समाज के सबसे अधिक प्रतिभाशाली ‘विवेकानंद’ भी डगर चूक गए हैं, समाज में पैसे और खर्चे की अधिक प्रतिष्ठा के कारण. उनका दोष कम है, समाज का अधिक.
इसलिए हम अचानक से छापा-वापा या हल्ला-गुल्ला नहीं करें. एक विनम्र अपील हो. क्योंकि हम समूचे भारत (राजस्थान) को एक परिवार मानकर चलें. परिवार में कोई खराब निकलता है तो उसे सुधरने का मौका दिया जाता है न ? लेकिन छः महीने के बाद कुछ भी सहन नहीं हो. तब स्पेशल टीमें काम पर लग जाएँ. जिनको नई व्यवस्था में अपना परिवार वेतन से पलता नजर नहीं आये, वो छोड़ दें और कोई धंधा कर लें. अच्छा होगा कि नए लोगों को रोजगार मिलेगा.
शासन की जिम्मेदारी सँभालने वाले सभी लोकनेता स्पष्ट घोषणा करें कि वे रिश्वत नहीं लेंगे. अभी की तरह नहीं कि पटवारी-JEn को तो पकड़ो और साहब बहादुर जो करोड़ों डकारते हैं, वे खुलेआम भाषण देते फिरें. उनको पुलिस salute करे और जय हिन्द सर बोले. यह दोगलापन बहुत गंदा लगता है. गंगा की सफाई तो ऊपर से होनी चाहिए.
शासन के हर कार्य को पारदर्शी बना दिया जाये. शासन के हर जिम्मेदार व्यक्ति का कार्य नागरिकों को अपने मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर नजर आए और ऐसा ही शासन के द्वारा खर्च किये गए रूपयों के बारे में हो. जब पैसा जनता का है तो उसे हिसाब पता होना ही चाहिए. इसमें अब सूचना के अधिकार से आवेदन करने की जहमत उसे क्यों करनी पड़े ? साथ ही जनता वेतन देती है तो उसे हक़ है यह जानने का कि काम पूरी क्षमता से हो रहा है या नहीं.
इसके साथ ही पहले छः महीने में भारत (राजस्थान) में एक अभियान गाँव गाँव चले(जैसा कि अभी सभी सरकारी योजनाओं का हो हल्ला होही रहा है) कि सभी परिवार अपने सामाजिक समारोहों को सादा करें और फिजूल खर्ची को रोकें. विवाह समारोह हों या मृत्यु या किसी अन्य अवसर पर, समारोहों को दिखावे और फिजूलखर्ची से दूर रखने का आव्हान किया जाये. सभी जातीय समाजों और शिक्षण संस्थाओं से मदद लेकर यह अभियान चले. जो भी लोग सफल कदम उठाएंगे, उनकी जबर्दस्त मार्केटिंग की जाए. सादगी को फेशन बना दें.
बहुत से कर्मचारी तो इन फिजूल के खर्चों और दिखावों के मारे ही रिश्वत के चक्कर में पड़ते हैं. वर्ना परिवार पालने के लिए वेतन पर्याप्त होता है.
और अंत में समाज में मूल्यों का परिवर्तन भी करें. सादगी, कला, ज्ञान और बचत के मूल्य फिर से स्थापित करें. पद और पैसा अपनी जगह ठीक है पर उनका मूल्य कम होगा. तभी पैसे का आकर्षण कम हो और समाज की सुन्दरता बढ़ेगी. पैसे वाले होंगे भी, पैसा बुरा नहीं है, पर उसका मूल्य कला और ज्ञान से अधिक करने से गड़बड़ हो जाती है.
भारत (राजस्थान) के किसी मोहल्ले में रहने वाले चित्रकार या प्रोफ़ेसर का सम्मान अधिक हो, बजाय किसी धनी या पद प्राप्त व्यक्ति के. जब समारोहों के मुख्य अतिथि कोई संगीतकार होंगे तो प्रतिभाएं संगीत को अपना लेंगी. तब कोई शिक्षक का कार्य छोड़कर थानेदार नहीं बनेगा और न कोई इंजिनियर या डॉक्टर आई.ए.एस. बनने का निर्णय करेगा.
कुछ लोग नैतिक शिक्षा को इसका समाधान बताकर मार्ग को लम्बा कर देते हैं. वह शिक्षा तो दी ही जा रही है पर उसका असर तक नहीं है, जब तक समाज पैसे का गुणगान कर रहा हैं !
मित्रों, भ्रष्टाचार के कई रूप हैं, कई कारण हैं. रिश्वतखोरी ही भ्रष्ट आचरण नहीं हैं, टेक्स की चोरी या अधिक वेतन में कम काम करना भी भ्रष्ट आचरण है. इसलिए इसका समाधान, इसका ईलाज भी कई तरीकों को एक साथ आजमाने से हो. कई दवाईयां एक साथ देनी हों- खासकर ऊपर लिखी पांच दवाईयां साथ साथ चलें, तभी यह बीमारी हमारे समाज और देश को छोड़ेगी. टुकड़े टुकड़े उपाय या उपाय में दोगलापन, भेदभाव का कोई अर्थ नहीं है. तभी तो हर चुनाव में हर पार्टी कहती हैं, हम भ्रष्टाचार कम करेंगे, बेशर्मी से, बेईमानों के पैसे से चुनाव लड़कर. उनको पता है कि चुने हुए राजा को कोई सवाल नहीं करेगा, कर्मचारी का कान मरोड़कर बेवकूफ बनाते रहो.
इच्छाशक्ति चाहिए, इसके लिए और नीयत साफ़ चाहिए. हमारी योजना सॉलिड है, जुमलेबाजी या अरोपबाजी नहीं है.
भगत सिंह का ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ या सुभाष चन्द्र बोस का ‘जय हिन्द’ !
महावीर पारीक
सीईओ & फाउंडर, लीगल अम्बिट