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धारा 223: मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत पर संज्ञान लेने की प्रक्रिया

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 223 उस प्रक्रिया को स्पष्ट करती है जिसे मजिस्ट्रेट को किसी शिकायत का संज्ञान लेते समय अपनाना होता है।

1. शिकायतकर्ता और गवाहों की जांच:

  • मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता और उपस्थित गवाहों की शपथ के तहत पूछताछ करनी होती है।
  • इस पूछताछ की सामग्री को लिखित रूप में दर्ज किया जाता है और उस पर शिकायतकर्ता, गवाहों और मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर होते हैं।

2. आरोपी को सुनवाई का अवसर:

  • किसी अपराध का संज्ञान लेने से पहले, मजिस्ट्रेट को आरोपी को अपनी बात रखने का अवसर देना अनिवार्य होता है।
  • यह प्रक्रिया न्यायिक निष्पक्षता (procedural fairness) सुनिश्चित करती है ताकि आरोपी का पक्ष भी सुना जा सके।

3. जांच से छूट के अपवाद:

कुछ परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता और गवाहों की जांच करने की आवश्यकता नहीं होती:

  • लोक सेवक द्वारा शिकायत: जब कोई लोक सेवक अपने आधिकारिक कर्तव्यों के तहत शिकायत करता है।
  • न्यायालय द्वारा शिकायत: जब शिकायत किसी न्यायालय द्वारा की जाती है।
  • मामले का स्थानांतरण: जब कोई मजिस्ट्रेट मामला किसी अन्य मजिस्ट्रेट को जांच या विचारण हेतु सौंप देता है।

प्रमुख प्रभाव और महत्व:

  • न्यायिक निष्पक्षता: धारा 223 इस बात पर बल देती है कि संज्ञान लेने से पहले आरोपी को भी अपनी बात रखने का अवसर मिलना चाहिए।
  • सूचना का प्रेषण: आरोपी को जो नोटिस भेजा जाता है, उसमें शिकायत, शपथ-पत्र और गवाहों के बयान शामिल होने चाहिए ताकि वह अपना पक्ष सही ढंग से प्रस्तुत कर सके।
  • PMLA मामलों में लागू: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि 1 जुलाई 2024 के बाद PMLA (धनशोधन निवारण अधिनियम) के अंतर्गत दर्ज की गई शिकायतों पर धारा 223 लागू होगी, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि आरोपी को संज्ञान से पहले सुनवाई का अवसर मिले।

न्यायिक व्याख्या:

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि:
    • धारा 223 के तहत जो नोटिस आरोपी को दिया जाता है, वह शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान दर्ज किए जाने के बाद ही दिया जाना चाहिए।
    • इसका उद्देश्य यह है कि आरोपी को पूरे आरोपों की जानकारी हो और वह सही जवाब प्रस्तुत कर सके।
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