मजिस्ट्रेट धारा 500 के तहत अपराध के बारे में शिकायत को धारा 156(3) सीआरपीसी के तहत जांच के लिए पुलिस को नहीं भेज सकता : कर्नाटक हाईकोर्ट
⚫कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत शुरू की गई एक कार्यवाही को रद्द कर दिया। मामले में मजिस्ट्रेट कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499, 500 के तहत मानहानि के लिए दायर शिकायत को आगे की जांच के लिए पुलिस को भेज दिया था।
🔵हाईकोर्ट ने ऐसा करते हुए सुब्रमण्यम स्वामी बनाम युनियन ऑफ इंडिया, (2016) 7 SCC 221 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि जब शिकायतकर्ता द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष की गई शिकायत में आईपीसी की धारा 500 के तहत दंडनीय अपराध शामिल है, मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता है ताकि सीआरपीसी की धारा 199 में निहित विशिष्ट रोक के मद्देनजर पुलिस को अपराध दर्ज करने और फिर अपराध की जांच करने का निर्देश दिया जा सके।
🔘धारा 199 में प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय आईपीसी के अध्याय XXI के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगा, सिवाय अपराध से पीड़ित किसी व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत के।
🟢 जस्टिस एम नागप्रसन्ना की बेंच ने कहा,”सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में और केरल हाईकोर्ट के विद्वान सिंगल जज (सुप्रा), जिन्होंने आईपीसी की धारा 199, 499 और 500 की व्याख्या की थी, विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया जांच का आदेश और सभी कार्यवाही का निर्देश कानून में शून्य होगा।”
आदेश में कहा गया,
⭕”इसलिए, कार्यवाही को समाप्त करने की आवश्यकता है और आदेश के दरमियान की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए इस तरह की कार्यवाही करने के लिए मामले को विद्वान मजिस्ट्रेट को वापस भेज दिया गया है।”
मामला याचिकाकर्ता
🔴 प्रशांत संबरगी ने अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, बैंगलोर के समक्ष लंबित कार्यवाही पर सवाल उठाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। मामला सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2008 की धारा 67 सहपठित आईपीसी की धारा 499 और 500 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए पंजीकृत किया गया था।
🟣शिकायतकर्ता, जिसने याचिकाकर्ता से ऋण लिया था, उसने यह कहते हुए निजी शिकायत दर्ज कराई थी कि याचिकाकर्ता द्वारा उसके खिलाफ दायर मामलों को खारिज करने के बाद उसने शिकायतकर्ता को कथित रूप से धोखा देने वाले संदेश को व्हाट्सएप ग्रुप पर प्रसारित किया।
याचिकाकर्ताओं की प्रस्तुतियां
🟡याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि आईपीसी की धारा 499 के नौवें अपवाद के तहत शिकायत को बरकरार नहीं रखा जा सकता है, जो मानहानि के प्रभाव को हटाकर आईपीसी की धारा 500 के तहत दंडनीय बनाती है और यह प्रस्तुत किया कि अधिनियम की धारा 67 को भी लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यह मानहानिकारक भी नहीं है और एक विशेष समूह के बीच सर्कुलेट किया गया है।
शिकायतकर्ता की प्रस्तुतियां
🟠शिकायतकर्ता के वकील ने कहा कि शिकायतकर्ता के खिलाफ ‘परिवर्तन’ नामक व्हाट्सएप ग्रुप में दिया गया बयान मानहानिकारक है, क्योंकि शिकायतकर्ता को अभी तक किसी भी मामले में दोषी नहीं पाया गया है। शिकायतकर्ता के खिलाफ अपराध दर्ज करने का मतलब यह नहीं हो सकता कि उसे बदनाम किया जा सकता है और समाज के समान विचारधारा वाले लोगों में उसकी छवि खराब की जा सकती है।
इसके अलावा, यह प्रस्तुत किया गया था कि यह ट्रायल का मामला है क्योंकि आईपीसी की धारा 499 का नौवां अपवाद हमेशा तथ्य का प्रश्न होता है।
हाईकोर्ट के सरकारी वकील ने शिकायतकर्ता द्वारा उठाए गए तर्क का समर्थन किया।
न्यायालय के निष्कर्ष
⏩अदालत ने सुरेश बनाम पुलिस सब इंस्पेक्टर, 2019 (4) KLT 106 के मामले में मुख्य मुद्दे पर विचार करते हुए केरल हाईकोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया, जहां यह माना गया कि धारा 155(2) के तहत मजिस्ट्रेट का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है कि वह आईपीसी की धारा 500 के संबंध में आरोप वाली याचिका के संबंध में अपराध दर्ज करने और जांच करने का निर्देश पुलिस को दे।
इस आलोक में न्यायालय ने कहा,
▶️”कार्यवाही को समाप्त करने की आवश्यकता है और आदेश के दौरान की गई टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए इस तरह की कार्यवाही करने के लिए मामले को विद्वान मजिस्ट्रेट को वापस भेज दिया गया है।”
👉🏽कोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया और मजिस्ट्रेट अदालत के आदेश को रद्द कर दिया। निचली अदालत को शिकायत के पंजीकरण के चरण से मामले में आगे की कार्यवाही करने और कानून के अनुसार सभी उचित कार्रवाई करने का भी निर्देश दिया गया।
केस टाइटिल: प्रशांत संबरगी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य।