लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
प्रत्येक भारतीय को नागरिक के रूप में सरकार की आलोचना करने का अधिकार है और इस प्रकार की आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित करने की स्थिति में भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में परिणत हो जाएगा।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जब अपनी सीमा का उल्लंघन करती है तो सामाजिक अराजकता का कारण बनती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन का मूल आधार है, परंतु समाज को अराजकता से बचाने के उद्देश्य से इस पर सीमित मात्रा में तार्किक प्रतिबंध आरोपित किये गए हैं, जहाँ प्रक्रिया एवं विषय-वस्तु दोनों का तार्किक होना अनिवार्य है। संविधान द्वारा इस पर लोक व्यवस्था, राष्ट्र की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध, अपराध को बढ़ावा देना, सदाचार, नैतिकता, न्यायालय की अवमानना तथा मानहानि के आधार पर प्रतिबंधों को आरोपित किया गया है।
हाल ही में ‘रिपब्लिक टीवी’ के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को 2018 में एक इंटीरियर डिज़ाइनर को कथित रूप से आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में मुंबई के रायगढ़ ज़िला पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया जिसे ‘लोकतंत्र को कुचलने’ और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रौंदने वाला कदम’ बताया गया है। भारतीय इतिहास में आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया गया था, परंतु वर्तमान समय में कुछ लोगों द्वारा स्वयं के हित के लिये अपनी संस्कृति की रक्षा के नाम पर फिल्मों, उपन्यासों का विरोध करने से भी अभिव्यक्ति का अधिकार सीमित होता है। वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग लोगों द्वारा स्वयं को लाइम-लाइट में लाने एवं अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने हेतु करना भी आम हो गया है।
इसके अलावा आतंकी समूहों द्वारा सोशल मीडिया का प्रयोग भर्तियों एवं आतंकी गतिविधियों के संचालन हेतु करना ऐसी समस्याएँ हैं जिन्होंने न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चुनौती दी है बल्कि सरकार द्वारा इससे निपटना अत्यंत कठिन बना दिया है। वर्तमान युग में फेसबुक, व्हाट्सएप, सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यापक रूप प्रदान किया है, जहाँ हर मुद्दे पर लोगों द्वारा खुलकर अपनी राय रखी जाती है, फिर चाहे मामला सरकार विरोधी हो या समलैंगिक संबंधों के मामले में समाज तथा रूढ़िवाद विरोधी, जिसके कारण आज आए-दिन किसी-न-किसी लेखक, पत्रकार, ब्लॉगर की हत्या का मामला सामने आ रहां है, जिसने न सिर्फ अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करने का प्रयास किया है बल्कि ऐसे प्रयासों को रोकने में सरकार की चुनौतियाँ भी बढ़ाई हैं। गौरी लंकेश जो कि भारतीय पत्रकार एवं बंगलूरू समर्थित एक एक्टिविस्ट थी, की 2017 में हिंदू अतिवाद की आलोचना के कारण हत्या कर दी गई थी।
लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें से किसी पर भी आँच आने पर दूसरा स्वत: ही विलुप्ति की कगार पर पहुँच जाता है, जो जनमत पर तानाशाही की स्थापना को बढ़ावा देता है। पत्रकारिता के संबंध में अधिकार एवं उत्तरदायित्व में संतुलन करना आवश्यक है। इसी प्रकार घृणा-संवाद एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य अंतर को समझना भी बहुत ज़रूरी है। मज़बूत लोकतंत्र हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसकी सीमा का तय होना भी आवश्यक है। इन दोनों में पूरकता के संबंध को स्वीकार करते हुए बढ़ावा देने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्र लगातार प्रगति के रास्ते पर अग्रसर हो सके, समाज समावेशी बने एवं विश्व में भारतीय संविधान जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा हेतु प्रसिद्ध है, की गरिमा बरकरार रहे।
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